***गीतिका ***
मृगछौनों की मुस्कानों में , ''''''''''''''आनंद नहीं जिसने पाया ।
अनुगामी वो पशुता का है , '''''''''उसकी मिथ्या मानुष काया ।।
इठलाते मन भावों को जब , '''''''''''''''कर देते हैं अनदेखा हम ।
समझो हमनें कलशामृत को ,'''''''''''''''' है अंजाने में ठुकराया ।।
दन्तों की चमचम तडित-जडित , ढलती है जब मुस्कानों में ।
तब स्वर्ग अवतरित धरती पर ,''''' मन देवों का भी भरमाया ।।
कर पाया भान न दृढ़ता का , '''पाहन का अवलोकन कर भी ।
है उसका ज्ञान अधूरा ही , ''''''''''''''उसने मन यों ही भटकाया ।।
देख जगत के प्रेमिल रँग को,'''''''''''''''' बैठ रहा जो आँखे मूंदे ।
अन्तर्मन शून्य बना उसका ,''''''''उसने जीवन व्यर्थ गँवाया ।।
चोटी पर बैठ कहे कागा , ''''''''''''''''''''''''जीता है मैंने चोटी को ।
कहत 'जसाला' यह अर्द्ध सत्य, ''पूरा सच समझ नहीं आया ।।
*****************सुरेशपाल वर्मा जसाला [दिल्ली]
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