सोमवार, 11 मई 2015

** कुछ मुक्तक **

******** कुछ  मुक्तक **************

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उद्दण्डता के छन आज भी  भूल नहीं पाते हैं;
रुसवाई की नटखट जिद सा शूल नहीं पाते हैं ;
खिलकर कली कब फूल बनी ये गुत्थी उत्तरहीन  ;
मिलन-खिलन की मुस्कानों सा फूल नहीं पाते  हैं.। ----{१ }
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आतंकी जमीं  पर,,,,,,, बारूद की खेती है ;
प्यार की फसल में भी, विष की ही रेती है ;
इंसानियत तार-तार,,, हकीकत भी रोती ;
दरिंदों के दिल की तो,, दरिंदगी चहेती है । --------------{२ }
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ईश्वर के इक रूप में है धूप का भी मान ;
मौसम के संभाग में है धूप की ही शान ;
धूप सुहानी मस्तानी कभी जिंदगानी है;
 धूप से ही सृष्टि में है सभी गुणों का भान।---------------{३}
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चार रंग में सिमटी दुनिया ,,,,,बाकी  इनका मेल है ;
पीला नीला लाल हरा से ,,,,बस बनता सारा खेल है ;
मेल करा दें इन रंगों का ,,,,,,,,,,बन जाते नव रंग हैं ;
बस प्यार से खिले ये दुनिया, बिना प्यार तो जेल है।----{४}
*****************सुरेशपाल वर्मा जसाला [दिल्ली]

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